आंसूओं को पनाह देते है, अपने कुनबे मै ....

हर एक साँस ....
रोती है , कमरे मे
रोती है , बड़े महलों मे
रोती है, झुग्गी और झोपड़े मे

जिसे वो मकान नहीं
'घर' कहतें है !
घुटती है , सांसें वहां पर भी
चाहती है
खुला आकाश
सांसें ।

लेकिन आती है , जब बाहर सांसें
अपने ही बनाये कुनबे से
मांगती है , सांसें
हिस्सा ,
आसमान के किसी कोने मे

क्यों कि
आदत है ,
हिस्से के लिए रोने मे ,
तो कैसे रह सकती है ,
आकाश के किसी कोने मे !

जब सांसे बाहर निकलती है
अपने कुनबे से ,
आंसुओं को पोछते हुए
और तब
ये साँसें
हम पर हंसती है ,
कहती है -

तुम तो अकेले हो
आसमान के नीचे
जमीन पर ,
तुम तो अपने ही चहेते हो !

और जैसे ही देखा
मैंने उनके आंसुओं को !

साँसे कह उठी -
(अपने आंसुओं को पोछते हुए )

अरे !
ये तो कुनबे का छुपा हुआ तिनका था ,
जो गड़ गया था आँखों मे ,
हाँ ! जो गड़ गया था आँखों मे ।

गड़ गया था ?
या की गाड़ दिया गया था ?

खैर छोड़ो !
तो फिर मै क्या कहता , अपने बारे मे!
कह दिया -

हम तो जीतें है , अपने मे
आंसुओं को भी पनाह देतें है
अपनी आँखों मे ।

मुझे न खौफ
ज़माने का !
दुआ तो ये है
कि
आ जाएँ ये
तिनके भी हमारी आँखों मे
क्यों कि
नहीं है लड़ाई यहाँ
अपने हिस्से की ,
लुटातें है
अपना भी हिस्सा
दूसरों की आँखों के आंसुओं के लिए
हाँ !
हम सांस लेतें है
अपने आसमान मे
और घुट ती सांस भी पाती है नई सांस हमारे इसी
अपने ही आसमान मे ।

हाँ हम सांस लेतें है
अपने ही आसमान मे
रहतें है , जमीन पर
चाहेतें है , अपने ही स्वाभिमान के
लेकिन
सुनो !

जो तिनको का बहाना करके
मारतें है , अपने आंसुओं को
ऐसे आंसुओं को भी साँसें देतें है ,
हम ,
अपने कुनबे मे
हाँ ! पनाह देतें है , हम उन्हें अपने कुनबे मे !

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