नई सोच

सोचा कुछ नया
सोचूं
थिंक टैंक मे,
मै भी कुछ खोचूं
सोच मे
एक औरत सी आई ।
सोच का दर्द देख ,
मेरी परछाई भी घबराई ।

कल तक थी जो अबला !
देख बन
सबला ,
उसने क्या कीमत है चूकाई ।

कल तक था जो
दर्द
चारदीवारी मे ,
आज उसकी सभ्य समाज ने
बाज़ार मे
कीमत लगाई ।

निकली थी
दर्द का
मरहम लेने
आजादी की थी अगुआई ।
कल तक कपड़ो तक की थी न सुनवाई ।

आज
बिन कपडे ,
ही
होती बहुत बड़ाई ।

सोच का दर्द
देख
ये नई सोच भी घबराई ,
नई सोच भी घबराई ।

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