दीवारों का दर्द ...




एक कमरे की चार दीवारें ...
थी जैसे चार बहने
लिपटी, हांथो मे हाँथ डाले एक दूसरे के ,
समेटे , अनेकों चित्रों को अपने बदन पर ।

न चाहते हुए आलिंगित हैं ,
मालिक के मनमाने चित्रों से
कोई काला
कोई नीला
तो कोई दीवारों की छाती मे घुसा हुआ ।
कीलों पर अटका
लटक रहा है,
बहनों के सीने से ।

हंसती कमरे की छत की दीवार
अपने दर्द को छिपाकर
बहनों पर
मानो बहनों को था न
एहसास
पंखे के घाव का,
जो लटका था छत के सीने से।

उसी पंखे की अनचाही हवायों से
छिल जाता था बहनों का सीना
लटके हुए चित्रों के वार से !

उस पर ये कैद धुआं
कमरे का ।
काले हांथो से करता,
चारो बहनों पर अत्त्याचार
मानो जैसे हो
सामूहिक बलात्कार !

न था बस ,
कमरे की फर्श का
उसके ऊपर
पहना देता बहनों को अपने
फर्श का लिबास ।

डरतीं है बहने ,
रोतीं है छत ,
सहमा है फर्श ,
पर न तो कोई है, तर्ज
न कोई साज
जिस पर
इठला लेतीं बहनें
गा लेता छत
झूम उठता फर्श ।

अब तो रहना है इस अनचाहे 'घर' मे
कहना है
छत को बाप
बांधनी है  है
राखी फर्श पर
और खोजनी है एक तर्ज
नाच उठे जिस पर कमरे का लड़प्ता मर्ज़
और दीवारें निभा सकें 'घर' का फ़र्ज़ !

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