sab kuch bikta hai !
२१ वीं शताब्दी में प्रतियोगिता बढ़ी है और इसमें कोई शक नहीं है कि उसी अनुपात में विद्यार्थियों की सजगता और मेहनत करने की क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है . और लोगो की महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी है लेकिन जैसे हर एक चीज़ का साइड एफ्फेक्ट होता है शायद उसी तरह इस बढ़ी महत्वाकांक्षा का भी साइड इफेक्ट है और वो है -कुकुरमुत्ते की तरह खुली " कोचिंग इंस्टिट्यूट " . आज शायद ही ऐसी कोई प्रतियोगिता हो जिसके लिए बाज़ार में कोचिंग न हो ! क्लर्क, पुलीस , बैंकिंग , सॉफ्टवेर , हार्ड वेअर , नेट , आईएस , टीचर और इस बौद्धिक बाज़ार में सबसे ज्यादा इंजिनियर और डॉक्टर बनाने की "दुकाने" हैं . लोग इसको एक्स्ट्रा नोलेज प्राप्त कराने वाली कोचिंग कहतें है , लेकिन यदि इन कोचिंगों की मानसिकता देखे तो मिलेगा की ये मात्र एक व्यापारी है और इन्होने एक तरह का बाज़ार बना लिया है . ये बाज़ार ही तो है , जहाँ लोग अपने सपनो को साकार करने के लिए एक उम्मीद ले कर जातें है . और जिस दूकान में उनकी उम्मीदों को पूरा करने का सपना जितना अच्छी तरह समझाया जाता है , उस दूकान से शिक्षा रुपी "सामान " खरीद लिया जाता है . कई लोग तो इन दूकानों पर एक से ज्यादा बार विश्वास करतें है , और जब तक डॉक्टर या इंजिनियर बनने की आशा ख़तम नहीं हो जाती तब तक इन दूकानों का सामान खरीदतें रहतें है .
उपर्युक्त शिक्षा के व्यापार से व्यक्ति विशेष पर कोई फर्क नहीं पड़ता , क्यूकि इस बाज़ार का उपभोक्ता ये जानता है की यहाँ घाटा भी हो सकता है . क्यूकि ये उपभोक्ता एक सुविधाभोगी वर्ग का होता है और हमारे समाज मे तो सपने देखने का हक़ भी बड़े लोगो को है , क्यूकि गरीब आदमी या तो सपने देखता नहीं है और अगर गलती से देख भी लिया तो या तो उन सपनो को सपने में ही मार देता है या उसकी परिस्थितियां उसके सपनो का क़त्ल कर देती हैं . यहाँ पर यह नहीं कहा जा रहा है है की सभी शिक्षा के इस गंदे बाज़ार मे बेचने - खरीदने मे लगे है , क्यूकि आज भी बहुत से से लोग है जो शिक्षा को बाजारू होने से बचा रहें है और बहुत से ऐसे बच्चे भी हैं जो बिना किसी दूकान की मदद के अपने सपनों को साकार कर रहे हैं . लेकिन इनकी संख्या इतनी कम है की ये इस खुले बाज़ार का असर कम नहीं कर सकते . यहाँ पर ये बात ध्यान देने योग्य है की सिर्फ डॉक्टर और इंजिनियर की ही दूकान नहीं है इस बाज़ार में, बल्कि देश के सबसे प्रतिष्ठित एक्साम आइ ए एस बनाने के लिए भी दूकाने लखनऊ से लेकर राजधानी दिल्ली तक खुली हैं . वो तो UPSC का भला हो की उनका सेलेबुस बदल जाने के कारण इस कोचिंग बाज़ार की महत्ता थोड़ी कम हुई है , लेकिन "कोचिंग की जरूरत "का भ्रम अभी भी बाज़ार में कायम है .
कोचिंग के पक्ष में अपने तर्क हो सकतें है , लेकिन इसके घाटे बहुत ज्यादा है . सबसे पहला तो यह है की ये व्यवस्था इतनी मंहगी है कि ज्यादातर सुबिधाभोगी वर्ग तक ही सीमित है , और इस व्यवस्था का मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है . कहने का मतलब है कि बच्चों को सब कुछ पैसे से खरीदने की आदत पड़ जाती है ,और इस कोचिंग खरीदारी के बाद नम्बर आता है प्राइवेट कॉलेज का . जिसके दर्शन GBTU Campus के बाहर लगी प्राइवेट इंस्टिट्यूट की दूकानों से किया जा सकता है . और अपनी -अपनी क्षमता के अनुसार लोग खरीदारी करतें हैं और अगले चार या पांच साल तक किसी तरह इंजिनियर या डॉक्टर बन ही जातें हैं और इस खरीदारी के बाद नम्बर आता है बिकने का क्यूकि अब जितने पैसे खर्च किये हैं उन्हें वसूल भी तो करना है , यही तो 'बाज़ार का नियम' है . विद्याथी के बाद बने इन नए 'मानव संसाधनों' को बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउसेस में 'सोसल कॉरपोरेट रेस्पोंसिबिलिटी ' को बेचना सिखाया जाता है और इस व्यवस्था के रास्ते से जो युवा हो कर आता है , उससे आप किसी मानवीय मूल्यों की अपेक्षा नहीं कर सकते. उससे आप सामाजिक उत्तरदायित्व की उम्मीद नहीं कर सकते ,उससे आप उम्मीद नहीं कर सकतें की वो परहित की बात करे क्यूकि उसे तो सभी कुछ खरीदने और बेचने की आदत पड़ चुकी होती है और " मूल्य " खरीदे या बेचे नहीं जा सकतें . खैर ! अभी तक तो मूल्य बिकाऊ नहीं हैं , लेकिन भविष्य में इसकी दूकान भी खुल जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी . किसी विचारक ने कहा है कि "किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो उसे महत्वाकांक्षी बना दो , वह रोज मरेगा " और इस बाज़ार ने हमे भी महत्वाकांक्षी बना दिया है. तो इस २१ वी सदी मे अब प्रतियोगिता इस बात की है कि कौन कितनी बार मरता है !
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