Lacuna in students' union

इंटर करने के बाद कॉलेज जाने का  सपना हर छात्र का  होता है , और आज के इस प्रतियोगितावादी समाज में लगभग हर क्षेत्र में युवावों का  अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व  बढ़ रहा है. और यदि यह क्षेत्र राजनीति में जाने का हो तो उसका अभीष्ट उदाहरण हमारी राजनीतिक पार्टियाँ और देश - प्रदेश कि सरकार ने अभी हाल के चुनाव में प्रस्तुत किया है. चाहे चुनाव नगर स्तर पर हो , प्रदेश स्तर पर या राष्ट्रीय स्तर पर हो , लक्ष्य हमेशा युवा रहा है, और क्यों न हो , भविष्य भी तो युवायों का ही है . अतः युवावों में भी राजनीति के प्रति विश्वास बढ़ा है. एक सामान्य व्यक्ति भी राजनीति से कही न कही जुड़ा हुआ है या जुड़ना चाहता है. और कुछ समाजसेवियों द्वारा जो एक स्वस्थ राजनीति और पारदर्शी राजनीति के प्रति आवाज उठाई जा रही है वह भी राजनीति को एक आम आदमी की रूचि का विषय बनाता है और युवा तो हमेशा से ही पारदर्शिता कि ओर आकर्षित हुआ  है.  

 जब से प्रदेश कि नई सरकार बनी है उसी शाम से   छात्र संघ चुनाव  चर्चा में बने हुए है. प्रतिक्रियाएं बहुत सी थी - पोजिटिव  भी और निगेटिव  भी .  निगेटिव  जैसे - कुछ लोगो का कहना था , अब फिर से दादागिरी चालू हो जाएगी, अब विश्वविद्यालय में क्लासेस कम और नेतागिरी ज्यादा होगी, लड़कियों का कॉलेज में जाना मुश्किल हो जायेगा  वैगारह- वैगारह. और  पोजिटिव  थी, अब छात्रों कि समस्यायों को भी सुना जायेगा , लाइब्ररी की हालत अच्छी हो जाएगी , कैम्पस  का विकास होगा , छात्रों की रचनात्मकता का विकास होगा, लखनऊ विश्वविद्यालय को भी एक मॉडल विश्वविद्यालय बनाया जायेगा   वैगारह- वैगारह. और कुछ समय पूर्व छात्र नेतायों ने कुछ ऐसे उदाहरण भी दिए जहाँ उनके द्वारा कॉलेज की सफाई करना , जुनिअर्स  की  मदद करना आदि शामिल है . लेकिन हाल ही के दिनों में कैम्पस में गोली का  चलना , पत्रकारों के साथ मार - पीट , पुलिस का बंदूख लेकर छात्रों को दौड़ाना , छात्रावास में हथियारों के होने का अंदेशा , फर्जी दाखिलों की आशंका आदि छात्र संघ के सकारात्मक उद्देश्य को ख़तम करतें हुए दिखाई देतें हैं . 

लखनऊ विश्वविद्यालय में कैम्पस के अन्दर पुलिस कभी भी देखी जा सकती है , चाहे वो कोई भी एक्साम हो या छात्रों को कण्ट्रोल करने के लिए पुलिस बल को प्रदर्शित करना हो . हाल ही में  विश्वविद्यालय प्रशासन का एक समिति बना कर छात्रावास में हर तीसरे दिन बाद छापा मारने कि निति को अनुशासन कि दिशा में एक सकरात्मक पहल कहा जा सकता है . लेकिन प्रश्न ये उठता है कि क्या प्रशासन को ये पहले से नहीं पता था कि छात्रावास में बहुत सी अनियमिताएं पहले से मौजूद है ? प्रश्न उठता है कि क्या इन छात्र नेतायों के चुनाव प्रचार के लिए बाहर के लोग आकर  हॉस्टल मे अभी से रहने लगे हैं या बहुत पहले से ? प्रश्न उठता है , कि कुछ दिन पूर्व जो पुलिस कर्मी एक छात्र को बंदूख लेकर दौड़ा रहा था , अचानक उस छात्र की पैरवी क्यों करने लगा ? प्रश्न ये है कि क्या पुलिस प्रशासन  को  आज इतने शोर शराबे के बाद सड़कों पर होल्डिंग्स क्यों  दिख रही है , ये पहले क्यों नहीं दिखी ? प्रश्न बहुत से हैं , लेकिन ये कोई नए प्रश्न नहीं है , इन प्रश्नों के ऊपर शायद ध्यान देर से गया है और पुलिस का प्रयोग कैम्पस में सदैव एक्साम देने आये छात्रों के मन मे खौफ पैदा करने के लिए किया गया है न कि ऐसे प्रश्नों  को हल करने के लिए. इस समय तो विश्विद्यालय में वाद विवाद होना चाहिए , कैम्पस में स्वस्थ छात्र संघ लाने के लिए चर्चाएँ होनी चाहिए , और इन रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से हम प्रदेश की मीडिया का ध्यान आकर्षित कर अपने लखनऊ विश्विद्यालय को नयी पहचान दिला सकतें है और अन्य प्रदेशों के सामने एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर सकतें है. 

आज जो भी छात्र नेता प्रदेश सरकार के  नेतायों की फोटो अपने बैनर पर लगा रहे हैं, वो पार्टी के द्वारा दिए छात्र संघ चुनावों के इस अवसर को भी गवां सकतें है. किसी भी प्रदेश का विश्वविद्यालय ही उस क्षेत्र के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करता है , अतः कही ऐसा न हो कि हम इन चुनावी रंग में सिर्फ काले रंग का ही प्रयोग कर के स्वयं की पहचान को ही काला कर दें . आज हमारी चिंता विश्वविद्यालय की साख होनी चाहिए और यहाँ के छात्रों का सहयोग  न कि किसी चौराहे पर लटके पोस्टरों कि संख्या. क्यूकि वोटर यही "मौन छात्र " हैं न  की सड़क पर चिल्लाती आम जनता .
दुःख ये नहीं है कि कुछ असामाजिक तत्वों के कारण छात्र संघ कि छवि ख़राब हो रही है , बल्कि दुःख है  एक आम छात्र के मन में राजनीति के प्रति अविश्वास पैदा होने का डर .और यदि युवा डर गया तो किसी भी पार्टी या सरकार के  बड़े से बड़े दावे , जो कि युवाओं के लिए लक्षित है , उनकी कोई कीमत नहीं रह जाएगी . अतः हमे छात्र संघ कि छवि को धूमिल होने से बचाना है और एक स्वस्थ छात्र संघ लाना है . 

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