विश्वास जरूरी है !
"विश्वास " कितना छोटा सा शब्द है , लेकिन इसे कमाने में किसी इमानदार व्यक्ति की पूरी जिन्दगी कम पड़ जाती है और गवाने में शायद कुछ सेकंड भी नहीं लगते। विश्वास मात्र किसी व्यक्ति विशेष के जीवन से ही जुड़ा नहीं हुआ है , आज के समाज मे कोई भी देश , कोई भी क्षेत्र इस शब्द से अलग नहीं हो सकता है। वैसे तो ये शब्द सभी के लिए बहुत जरूरी है लेकिन यदि हम यहाँ पर बात करें हमारे सामाजिक , राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र की शायद हम एक बहुत बड़े क्षेत्र को समेट सकतें हें। सबसे पहले हम बात करतें है अपने सामाजिक क्षेत्र की जहाँ पर सबसे छोटी इकाई "परिवार" का स्थान सर्वोपरि है। एक स्वस्थ समाज की पहचान ही एक स्वस्थ परिवार होता है , क्युकी किसी भी परिवार के सदस्य ही आगे के स्तर का अस्तित्व तय करतें हैं। आज के निरंतर परिवर्तनशील और अवसरों से भरे समय में परिवार के सभी सदस्यों का एक दुसरे पर विश्वास बहुत जरूरी है, आज हम लड़के और लड़की में कोई भेद नहीं करतें हैं लेकिन ये समानता मांग करती है एक विश्वास की , चाहे वो विशवास पुत्र का अपने माँ के प्रति हो या फिर एक पुत्री का उसके पिता के प्रति। और अभी हमने कुछ दिन पहले वैलेंटाइन डे का प्रेममय वातावरण भी देखा , वहां पर भी विश्वास ही सर्वोपरि था , क्युकी उपहार चाहे कितना भी मंहगा क्यों न हो लेकिन यदि विशवास नहीं है तो उसकी कीमत कुछ भी नहीं होती। हम कसमे वादे तो बहुत कर लेतें है लेकिन जब उसे निभाने की बात आती है तो विश्वास के आभाव में हमारे पास सिर्फ अकेलापन होता है और सारी उम्र दूसरो को कोसने में लगा देतें हैं बिना इस बात की पड़ताल किये कि क्या हमारे रिश्ते में विश्वास था ?
राजनीतिक क्षेत्र में देखा जाये तो सामान्तः विशवास का रिजल्ट हर हर पांच साल बाद हमारे सामने होता है। लेकिन रिजल्ट आने के यदि आप उसका विश्लेषण करें तो सामान्यतः आप को ऐसा लगता है कि कही न कही धोखा हुआ है, "सामान्यतः " शब्द का प्रयोग इस लिए किया है क्युकी जनता का रोष उन्ही जनप्रतिनिधियों के लिए इतना बढ़ जाता है जिन पर विश्वास कर के उन्होंने अपना बहुमूल्य विश्वास ,वोट के रूप के उनके ऊपर खर्च किया था। यानी कहीं न कहीं विश्वासघात तो हुआ ही है तो कहने का तात्पर्य ये है की जब हमारा निर्णय विश्वास के ऊपर ही होता है तो हम इसको सम्हाल कर क्यों नहीं रखतें हैं, क्युकी सारी उम्र तो उसे कमाने में लगा तो और कुछ भौतिकवादी लक्ष्यों के लालच में हम विश्वास जैसे बहुमूल्य हथियार को क्यों दरकिनार कर देंतें हैं। आज पूरा संसार "विश्व शांति की बात कर रहा है और शांति के लिए विश्वास सबसे मौलिक जरूरत है क्युकी शांति तभी संभव है जब दोनों पक्ष एक दुसरे पर विश्वास कर सकें। अतः जहाँ आज हमारी राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव के पहले "लक्ष्य 2014" की बात करतें हैं तो उन्हें इस बात का सबसे पहले ध्यान रखना चाहिए कि "विश्वास हमेशा " इस लक्ष्य की नींव होनी चाहिए तभी इस लक्ष्य 1014 को भेदने का फायदा है अन्यथा फिर वही "धोखा" शब्द ही प्रचारित और प्रसारित होगा।
संस्कृतिक क्षेत्र का विश्वास तो सदियों से चला आ रहा है और इसे कोई भी नहीं तोड़ सका है, और मुख्य रूप से भारत जो की सर्व धर्मं संस्कृति से परिपूर्ण है वहां इस सांस्कृतिक विश्वास को तो कोई हिला भी नहीं सकता . अगर हम कुछ "अंध विश्वास " को छोड़ दें तो देखतें है कि इस सांस्कृतिक विश्वास की जड़ में एक बहुत बड़ा पक्ष है " श्रद्धा " का और जब बात होती है श्रद्धा कि तो वहां बड़े से बड़ा तर्क भी कुतर्क ही साबित होता है .वैसे तो बहुत से उदाहरण हैं जहाँ पर भारतीय सांस्कृतिक विश्वास को निरंतर अडिग साबित किया जा सकता है लेकिन हाल-फिलहाल के समय में महा कुम्भ इसका ज्वलंत उदाहरण है। जहाँ पर इतनी अविश्वासी घटना के बाद भी लोगो का जाना बंद नहीं हुआ है। यहाँ पर यदि देखा जाये तो राजनीतिक विश्वास और सांस्कृतिक विश्वास के बीच सामाजिक विश्वास की अडिग सहन शक्ति और टकराव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है लेकिन अफ़सोस की हम अपने झूठे स्वाभिमान को बचाने के लिए मात्र दोषारोपण का सहारा ले रहें है, यहाँ पर जरूरत है, विशवास के पैमाने पर स्वयं को तौलने की न की दूसरे के धोखे के पीछे स्वयं के धोखे को छुपाने की। क्युकी विश्वास तर्क नहीं मांगता वह तो श्रद्धा का भूखा होता है। तो हमें अपने कमाये हुए विश्वास को बचाना चाहिए ताकि भविष्य में कोई हमारे विश्वास हो हिला न सके।
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