क्या आप हमारे साथ हैं ?

किसी भी अव्यवस्था को व्यवस्थित करने और मुख्य धारा में लाने के लिए एक सभ्य समाज एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देता है जो सभी के लिए हितकारी हो और जहाँ तक लोकतांत्रिक देश का प्रश्न  हो तो ऐसी सफल व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अति आवश्यक हो जाती है. और जिस व्यवस्था की बात हम कर रहे हैं वो है पुलिस और कानून व्यवस्था . लेकिन पुलिस और कानून शब्द सुनतें ही सुरक्षा के बजाये हम असुरक्षा को महसूस करने लागतें हैं . ऐसा क्यों होता है ? जो लोग हमारी सुरक्षा के लिए हैं हमें  उनसे डर क्यों लगता है ? प्रश्न कई हैं क्या ये लोग वाकई हमें  डरातें  हैं ? या फिर हम हमेशा कुछ गलत करतें है इसलिए हमें इन लोगो से डर लगता है? गलती किसी भी पक्ष की  क्यों न हो लेकिन नुक्सान "स्वस्थ समाज " की संकल्पना का होता है. आज लोग शायद डर के माध्यम से ही सामने वाले को झुकाना चाहतें हैं, चाहे वह किसी गाड़ी की नंबर प्लेट में पुलिस या अधिवक्ता लिखा हो या फिर आर्थिक - सामाजिक असमानता का सहारा लेकर नक्सली हमले को सही सिद्ध करने की बात हो . एक आम आदमी बहुत ही आत्मविश्वास से ये कहता हुआ सुना जा सकता है कि "पुलिस वालों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही सही नहीं है." आखिर लोग ऐसा क्यों सोचतें है , यानी कहीं न कहीं कुछ आपसी दूरी तो अवश्य है. लोग भी थोड़ी सी सुविधा लेने के लिए चंद नोट निकालते हुए नहीं शरमातें हैं चाहे वास ट्रैफिक पुलिस को पटाना हो या फिर किसी पुलिस कर्मी से कोई अनुचित काम कराना हो . और फिर चूंकि  एक बार "इजी मनी " किसी की भी जबान पर लग जाये उसके बाद पैसे के लिए उसकी खुराक रोज बड़ने लगती है. तो कहीं न कहीं ये राक्षस हमने ही अपने लिए खड़ा किया है .  

ऐसा नहीं है कि पुलिस वाले अपनी तरफ से कुछ नहीं कर रहे हैं . आज समाज में सभी लोगो का वैचारिक स्तर पर विकास हुआ है और लोग अपने अधिकार के साथ-साथ अपने कर्त्तव्य को भी समझने लगे हैं कई तरह के अभियान चलाये जा रहें है जहाँ पर आम जन और पुलिस के बीच दूरियों को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है , लेकिन इन प्रयासों में भी निकृष्ट लोग अपना स्वार्थ ढूढ लेतें हैं जैसे यदि  कोई पुलिस क्राइम को कम करने के लिए और अपना इंसेंटिव पूरा करने के लिए गलत तरीके से चालान काट रहा है या बेक़सूर लोगो को जबरन जेल में डाल  रहा है तो शायद इससे उस पुलिस वाले का थोड़ी देर के लिए तो फायदा हो जाये लेकिन हम जिस दूरी की बात कर रहे थे आम  आदमी और पुलिस के बीच , वह दूरी और अधिक समय के लिए बढ जाती है . नक्सली मुद्दे में भी बहुत से कारण हैं,लेकिन आदिवासियों का पुलिस प्रशासन के प्रति अविश्वास भी एक बहुत बड़ा कारण है , और इसी अविश्वास का नजायस फायदा नक्सली उठा रहें है। क्युकी चाहे वह किसी शहर का आम आदमी हो या जंगल का सुविधायों से रहित आदिवासी सभी को कही न कहीं डर इस बात का है कि क्या पुलिस प्रशासन उसके साथ है ? देखा जाये तो नक्सली भी तो आदिवासियों को सुरक्षा देने का वादा कर के ही उनसे पैसे वसूल करतें हैं और शायद वो अपने वादे में सफल होतें हैं , हाँ ये सच है की इन वादों में आदिवासियों का भला कम और नक्सलियों का स्वार्थ अधिक होता है . लेकिन अगर क्या पुलिस प्रशासन चाहे हो इन दूरियों को कम नहीं किया जा सकता ? आज हम बात करतें है "पीपुल -तो-पीपुल " रिलेशन की और एक  आम आदमी और पुलिस के बीच निडर और स्वस्थ रिश्ते को बनाने के लिए पुलिस की तरफ से एक फियरलेस पीपुल- टू -पीपुल कांटेक्ट बहुत जरूरी है और इस अभियान की सफलता के लिए आम आदमी का साथ सदैव अपेक्षित है . 

अभी कुछ दिन पहले पुलिस ने सड़को पर आकर लोगों को फूल बाँट कर उन्हें सहज महसूस कराया था और "पैगाम अमन का " जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से पुलिस सीधे लोगो के बीच अपने विचारो को रख रही है. जिसे एक सफल प्रयास कहा जा सकता है. और पुलिस प्रशासन के द्वारा एक दिन का साप्ताहिक अवकाश भी पुलिस कर्मी के अच्छे व्यवहार में सहायक हो सकता है. लेकिन इन सबके साथ बहुत जरूरी है की हम अपने क्षणिक स्वार्थ के लिए किसी भी पुलिस कर्मी को कोई भी अनुचित भेंट न दें और पुलिस भी अधिक से अधिक लोगो के संपर्क में आकर आम जनता के मन से पुलिस के डर को दूर करने का प्रयास करे। ताकि लोगो को कभी भी और किसी भी तरह की सहायता के लिए पुलिस के पास जाने में डर नहीं लगे और वो अपनी सुरक्षा के प्रति पुलिस पर निर्भर हो सके. इससे हम कई अनचाहे गुनाहों को रोक सकतें हैं, और आम जनता को गुमराह होने से भी बचा सकतें हैं . पुलिस का उद्देश्य भी पूरा  होगा और स्वस्थ समाज का निर्माण भी संभव होगा .  

Comments

Popular Posts