शिक्षक दिवस की पूरकता
५ सितम्बर , जो की भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन हमारे देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन , एक श्रेष्ट अध्यापक, महान शिक्षाविद और दार्शनिक का जन्म दिन होता है. हर एक देश में अध्यापक दिवस का दिन भले ही अलग - अलग हो किन्तु मनाने का उद्देश्य एक ही होता है और वो है किसी शिक्षाविद को सम्मान देना या शिक्षा के क्षेत्र में कोई महान कार्य का होना । विश्व शिक्षक दिवस इसके तुरंत एक माह बाद यानी ५ अक्टूबर को मनाया जाता है। और UNESCO ने भी ५ अक्टूबर को ही विश्व शिक्षक दिवस की मान्यता दी है।
अध्यापक के प्रति अपना सम्मान देना तो भारतीय संस्कृति में बहुत पुरानी परंपरा है। लेकिन इस परंपरा में कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। ये परिवर्तन सकारात्मक हैं या नकारात्मक , ये सोचने का विषय है। और कहा भी जाता है की "परंपरा में गुणात्मक परिवर्तन ही आधुनिकता है। " और आज के इस दौर में लगभग सभी अपने को आधुनिक ही मानना चाहेंगे। शिक्षक दिवस वैसे तो २० वीं सदी से ही मनाया जा रहा है लेकिन २१ वीं सदी में इसका रूप थोड़ा सा बदल गया है. अध्यापक और शिष्य का रिश्ता शिक्षा प्रदान करने वाला और शिक्षा ग्रहण करने वाले से कुछ अधिक हो गया है। आज की सफल शिक्षा प्रणाली के लिए दोनों एक - दूसरे के पूरक हैं।
सर्वप्रथम यह स्पष्ट करना अति आवश्यक है कि यहाँ पर पुराने को अच्छा कहना और आज के दौर को कोसना , ऐसा इरादा बिलकुल नहीं है। यहाँ पर एक शिक्षक का एक छात्र के जीवन में क्या महत्ता है और इसका क्या दूरगामी असर है मात्र इसी को विवेचित करने का प्रयास किया गया है।क्युकी एक विद्यार्थी सबसे अधिक समय अपने शिक्षक के साथ बिताता है चाहे वह प्रत्यक्ष समय हो या अप्रत्यक्ष समय। और बचपन में तो अध्यापक का सबसे अधिक असर होता है। कहतें भी हैं कि बच्चे तो खाली स्लेट होतें हैं आप जो चाहें उस पर लिख सकतें हैं। बचपन में एक बच्चा हर एक नई चीज़ को सीखने के लिए लालायित रहता है, और बहुत सी ऐसी आदतें हैं जो की आज भी हम नहीं छोड़ पातें हैं क्युकी बचपन में वो आदतें हमारे दिल-ओ-दिमाग पर इस कदर अपनी जगह बना चुकी हैं कि छूटने का नाम ही नहीं लेती। सबसे बड़ी आदत तो आज की इस डिजिटल युग में भी अपने नोट्स स्वम बनाना और पेपर -पेन का अधिक से अधिक उपयोग करना है। जो की बचपन में सिखाये गए नियमों में से एक है. इसके अलावा कॉपी -किताब गिर जाने पर उसके सम्मान में उसे सर से लगाना,खाना खाने से पहले हाँथ धुलना और प्रार्थना करना आदि। कभी - कभी कुछ ऐसी गलती जो की हमारे छोटे करतें हैं हमें उन पर गुस्सा आता है , लेकिन हमें भी उस गलती को देख कर अपने अध्यापक की डांट याद अ जाती है.
बचपन की बातें तो कमोवेश सामान हैं ,टेक्नोलॉजी के आने से अध्यापन में कुछ परिवर्तन जरूर आया है, बाकी गुरु और छोटे शिष्य का वाही प्यार भरा रिश्ता आज भी है कुछ अपवादों को छोड़ कर। चुनौती तो वहां आती है जहाँ पर छात्र स्वयं सोचना शुरू कर देता है। और सोचने की ये उम्र अब बच्चे के १८ वे जन्मदिन का इंतज़ार नहीं करतीं है।और आज के इस रचनात्मकता के दौर में उन्हें सोचने की शिक्षा एक आधुनिक अध्यापक ही दे सकता है। पहले अध्यापक का आदेश सब कुछ होता था क्युकी अध्यापक को ही ज्ञान का स्रोत माना जाता था और उसके वचन ही आखिरी वचन होतें थे लेकिन आज के इस "नॉलेज युग" में जहाँ आप को कोई भी सूचना कुछ बटन दबा कर मिल जाती है वहां पर अध्यापक को ही ज्ञान का आखिरी स्रोत मानना गलत होगा। इसका मतलब ये नहीं है की अध्यापक की महत्ता नहीं है. सूचना भले ही हमे कितनी मिल जाये लेकिन ज्ञान तो गुरु से ही मिलता है। बस इशारा आधुनिक शिक्षा प्रणाली और आधुनिक गुरु -शिष्य संबंधो की ओर है। यहाँ पर ज्ञान और सूचना का प्रवाह दोनों दिशायों से हो रहा है अतः हमें सदैव कुछ सिखाने के साथ -साथ कुछ सीखने के लिए भी तैयार रहना चाहिए तभी शिक्षक दिवस का उद्देश्य भी सार्थक हो सकेगा।
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