मेरी माँ

मैं शहर के छोटे -बड़े महोत्सवों और कार्यक्रमों में कुछ दोस्तो के साथ नाटक किया करता था।  मुझे अपने ग्रुप के सदस्यों पर बहुत विश्वास था। और हो भी क्यों न ? मेरे सारे दोस्त रचनात्मक और पढे -लिखे जो थे।  सभी लोग हमेशा नए विचारों  साथ अपनीं जिम्मेदारी निभाते थे।हम सभी बुद्धिजीवी वर्ग के माने जाते थे।  कभी - कभी मेरी माँ मेरे काम और रिहर्सल के बारे में पूंछती थीं।  मैं उन्हें हमेशा कुछ इधर -उधर की बातें समझा देता था क्युकी मुझे ये पता था मेरी माँ ग्रामीण परिवेश में पली - बड़ी हुई हैं और उन्हे शहर के आधुनिक और रचनात्मक  विषय कि ज़ानकारी नहीं होंगी।  मुझे पता था की मैं , माँ को कभी -कभी इस बात का एहसास दिला देता था कि उनका स्तर बहुत कम है और उन्हे प्रगतिशील समाज की कोइ समझ नहीं है।  लेकिन उन्होने मुझे कभी कुछ नहि कहा।  

एक बार मुझे एक नाटक का  प्रॉजेक्ट मिला, जहाँ पैसे तो कम थे लेकिन भविष्य में अच्छे अवसर मिलने कि सम्भावना थीं ।  मैंने बिना अपने ग्रुप से पूछे प्रोजेक्ट के लिये हाँ कर दी , क्युकी मुझे अपने दोस्तो पर विश्वास था । नाटक का विषय था "बढ़ता शहरीकरण और घटती हरियारी " . मैंने अपने सारे दोस्तों को जैसे ही बताया उन्होने कम पैसे के कारण काम करने से मना कर दिया।  मैंने उन्हें बहुत समझाने कि कोशिश की लेकिन कोई नहीं माना।  मैं उदास घर पर बैठा  हुआ था।  क्या करता कल शो था और इज्जत कि बात थी।  मुझे देख मेरी माँ समझ गयी और उसने सिर्फ़ इतना कहा "काश मैं तुम्हारी कोइ मदद कर सकती।  इसके बाद मेरी माँ गमलों में पानी डालते -डालते कुछ गुनगुना रही थी।  मैंने पूछा आप ये क्या गा रही हैँ , उन्होने कहा "सावन का गाना है हम लोग गाँवोँ  मेँ गाते थे, वहाँ बड़े -बड़े  पेड़ होते थे जिस पर हम लोग झूला डाल कर झूलते थे और अपने दोस्तों के साथ बहुत मज़े करते थे।"  फिर मेरी माँ अचानक उदास हो गयीं और कहने लगी "… लेकिन अब तो सारी हरियाली खत्म हो गयी है , गाँव तो बचे ही नहीं हैं , लोगो ने पेड़ो को काट -काट कर नये शहर बना दिये , नई बिल्डिंग्स बना दी।"  और यही नहीं आगे वो कहती हैं "… शायद ये विकास के लिये जरूरी है , नही तो हम लोग भी यहाँ शहर में आ कर न बस जाते।  लेकिन लोगो को पेड़ काटने के साथ - साथ नए पौधे लगाने भी तो चाहिए।  तभी तो विकास होगा , क्यों रिंकू तुम क्या कहते हो ? तुम लोगो को तो मुझसे ज्यादा पता है। .... " और मैं सिर्फ़ सुन रहा था , मेरे मुँह से कुछ भी नहीं निकला।  

दूसरे दिन मेरी माँ ने पहली बार मंच पर एकाँकी किया और शो के बाद दूसरें दिन सभी अखबारों में उसी ग्रामीण महिला कि चर्चा हो रही थी जिसे मैँ प्रगतिशील नहीं समझता था।  वो मेरी "माँ " थी।  

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