राजनीतिक चेहरों की लड़ाई
अंग्रेजी में एक कहावत है , कि " लुक्स आर डिसेप्टिव। " अर्थात चेहरे पर जो दिखता है वो धोख़ा देता है। कई लोग इस अनुवाद को गलत कह सकतें हैं लेकिन जो मै कहना चाहता हूँ उसका मतलब ये है कि सही दिखने वाला चेेहरा भी धोख़ा दे सकता है। आज हम उसी चेहरे की बात करेगें की इस कहावत के बाद भी आज -कल चेहरे को ही प्राथमिकता दी जाती है। मनोरंजन और विज्ञापन की दुनियाँ में तो चेहरे की पहले भी बहुत कीमत थीं और आज भी चेहरे की ही सबसे ज्यादा क़ीमत है। लेकिन कालांतर में राजनीति में "राजनीतिक चेहरे " की कीमत बढ़ती जा रही है। १६वी लोक सभा का चुनाव इसका अभीष्ट उदहारण है जहाँ दिन प्रतिदिन चेहरें की प्राथमिकता दी जा रही है। और किसी एक पार्टी के ऊपर ये नियम नही लागू होता बल्कि कमोवेश हर पार्टी में किसी न किसी चेहरे की विशेष भूमिका है. लोगों को शायद पार्टी विशेष का राजनीतिक घोषणा पत्र या पार्टी का नाम तक पता न हो लेकिन कौन सा व्यक्ति चुनावी माहौल में सबसे ज्यादा छाया हुआ है ये वो बता सकता है।
यदि मैं गलत नहीं हूँ तो देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों के साथ -साथ उनके नेताओं के "चेहरे " का पार्टी विशेष की सफलता और असफ़लता में बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज भी प्रियंका गांधी कांग्रेस की पोस्टर गर्ल हैं और कहीं न कहीं लोग उनमे इंदिरा गांधी की छवि को दिखतें हैं। या की कहा जा सकता है कि राहुल में लोग राजीव गाँधी की छवि को देखतें हैं। यानी सफल राजनीतिक चेहरों की एक पूरी श्रृंखला है। अब बात करतें देश की दूसरी पार्टी की। भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी बाजपेई एक बहुत बड़ा चेहरा हुआ करता था और आज भी बीजेपी के पोस्टर बॉय के नाम से जाने जातें हैँ। चेहरे की लड़ाई में बीजेपी आज सबसे आगे खड़ी दिखाई देती है , क्युकी इस पार्टी ने एक नईं प्रचार पृथा को शुरु किया है , यहॉँ पर नरेन्द्र मोदी क चेहरा चुनावी माहौल में सबसे बड़ा चेहरा उभर कर आ रहा है। यहाँ पर ये देखने को मिल रहा है कि पार्टी विशेष का स्थान व्यक्ति विशेष के स्थान से नीचे चला गया है। १६ मई को चुनावी नतीजे कुछ भी हों , चेहरे कि इस लडाई में विरोधी पार्टियाँ भी मोदी को ही विजेता मानने से इंकार नहीं कर सकते।
आगे बढ़ने से पहले इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक है की आज के प्रचार की ये विशेषता है कि पोस्टर, बैनर या फ़िर कोइ भी इलेक्ट्रॉनिक प्रचार सभी जगह चेहरे विशेष को ही प्रमुखता दी जाती है या कि कहें चेहरे को ज्यादा हाई लाइट किया जाता है। इसी लिए "राजनीतिक चेहरे की लड़ाई " अब जरूरी हो रही है। अगर हम पहले की प्रचार पृथा को देखेँ तो वहॉँ पर पोस्टर मेँ चेहरे को कम और मुद्दों को ज्यादा स्थान दिया जाता था। खैर समय के साथ प्रचार में परिवर्तन को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
एक तीसरी पार्टी जिसने कुछ ही समय में भारतीय राजनीति में अपना स्थान बना लिया वो है आम आदमी पार्टी। इस पार्टी की शुरुआत भी मुद्दों के साथ -साथ एक बहुत विशेष चेहरे के साथ हुई थी और वो थे अन्ना। और आज अरविन्द केजरीवाल भी एक सफ़ल फेस वैल्यू को भूनाने मेँ किसी से भी पीछे दिखाई नहीं देतें। वैसे तो लगभग सभी पार्टी में "सफल चेहरों " को चुनाव लड़ते देखा जा सकता है , लेकिन आप जैसी नई पार्टी ने भी परम्परा को अपनाने में ज्यादा देर नहीं की और चेहरे कि कीमत को समझते हुए कई नामी - गिरामी चेहरे चुनावी मैंदान मेँ उतार दिये। और चेहरे की इस लड़ाई में वो भी किसी से कम नहीं दिखाई देती। एक बार फिर चुनावी नतीजे कुछ भी हों लेकिन चेहरे की इस लङाई मेँ आप पार्टी भी आगे की लाइन में खड़ा दिखाई देता है।
भारत निर्वाचन आयोग में पंजीकृत कुल ६ राष्ट्रीय पार्टियाँ , ४७ क्षेत्रीय पार्टियाँ और १५६३ अनरेकग्नाइस्ड पार्टियाँ हैं (१२ मार्च २०१४ तक का आंकड़ा ). यानी सब पार्टियों का नाम भले ही याद ना आएं लेकिन कुछ "चेहरों " के नाम सुनतें ही हमेँ पार्टी याद आ जाती है जैसे , मुलायम , मायावती , एन चंद्रबाबू नायडू , ममता, शरद यादव , पासवान , लालू , शिबू सोरेन और ऐसे ही बहुत से नाम हैं जो चुनाव में अपनी पार्टी के भी आगे खड़े दिखाई देतें हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि "लुक्स डिसेप्टिव हो सकतें हैं " लेकिन जो भी वो इस लोक सभा में अबकि लड़ाई तो चहरों की ही थी।
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