Who is the winner ? :Individual Politician OR Development

 आज कल चुनाव और क्रिकेट दोनो ही लोगों की और मीडिया की चर्चा का विषय हैं।  शायद ही ऐसी कोई जगह हो जहाँ पर भारतीय लोकसभा चुनाव और आईपीएल कि बातें न हो रही हो। क्रिकेट के खेल में एक पारदर्शी और दोषमुक्त खेल के लिये  अम्पायर की भूमिका बहुत महत्व पूर्ण होती है।  यदि उसके सही निर्णय को खिलाड़ी मानने से मना कर देता है तो अव्यवस्था फ़ैल सकती है।  यानी यहाँ पर एक जिम्मेदार खिलाड़ी का ये कर्त्तव्य होता है कि वो अम्पायर की गरिमा का ख्याल  रखें।  यहाँ पर अम्पायर के गलत निर्णय का विरोध सदैव प्रशंशनीय होगा लेकिन अम्पायर कि गरिमा को बिना चोट पहुचायें। इसी तरह यदि हम तथाकथित चुनावी खेल को देखें तो यहाँ पर चुनाव आयोग कि एक अहम भूमिका होती है और उसे ये अधिकार हमारे भारतीय संविधान से प्राप्त हुआ है। 

भारतीय संसद के द्वारा बनाया गया  जनप्रतिनिधि कानून ,१९५१ के तहत चुनाव आयोग को विशेषाधिकार प्राप्त है और भारतीय संविधान के अनुछेद ३२७ में इसे स्पष्ट रूप से शामिल किया गया है।  चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और किसी भी राजनीतिक पार्टी और राजनेता से सदैव उसके  सम्मान की अपेक्षा की जाती है। लेकिन आज के चुनावी माहौल में लगभग हर दिन चुनाव आयोग का अपमान किया जा रहा।  चूकी ये संवैधानिक संस्था है अतः अप्रत्यक्ष रूप से इन चुनावी रैलियों मेँ हर रोज हमारे सँविधान का भी खुलेआम मजाक़ उड़ाया जा रहा है , उसका अपमान किया जा रहा है।


चुनावी माहौल ने  और कुर्सी की चाह ने राज नेतओं को कुछ भी कहने और करने के लिये स्वतन्त्र छोड़ दिया है।  ये वही राजनेता हैं जिन लोगो ने अपने नामांकन के समय भारतीय संविधान कि शपथ ली थी और चुनाव जीत जाने के बाद  उसी संवीधान कि शपथ लेगें।  भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश ने उन्हे जनप्रतिनिधि बननें क अधिकार दिया और  राज नेता उसी जनप्रतिनिधि कानून क़ी खुलेआम सड़कोँ पर धज्जियाँ उड़ा रहें हैं। 

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है की राजनीतिज्ञ जनप्रतिनिधि कानून के प्रति तटस्थ हैं कोइ भी इसके सम्मान में आगे नहीं आ रहा है।  इसके पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति से अपराधियों को दूर रखने के लिये जस्टिस ए के पटनायक और जस्टिस एस जे मुखोपाध्याय की पीठ ने जनप्रतिनिधित्व कानून कि धारा ८ (४ ) को असंवैधानिक करार देतें हुए कहा कि दोषी पाए जाने कि तारीख से ही सांसद / विधायक अयोग्य घोषित हो जायेगें।  जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8(3) के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो वह अयोग्य हो जाएगा। जेल से रिहा होने के छह साल बाद तक वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए अयोग्य रहेगा।
इसकी उपधारा 8(4) में प्रावधान है कि दोषी ठहराए जाने के तीन माह तक किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता है। और दोषी ठहराए गए सांसद या विधायक ने कोर्ट के निर्णय को इन दौरान यदि ऊपरी अदालत में चुनौती दी है तो वहां मामले की सुनवाई पूरी होने तक उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन उस समय भी  आम जन का प्रतिनिधित्व करने वाले तथाकथित और स्वघोषित राजनेता चुप थे और तटस्थ रह कर जनता के सामने अच्छे बने रहे थे। 

कहने का तात्पर्य ये है कि आज लोग अपने अधिकार और कर्तव्यों को जानतें हैं उसके बाद भी ये राजनेता ऐसे सम्प्रदायिक भाषण  और भेद -भाव पूर्ण बातें क्यों करतें हैं। एक - दूसरे को नीचा दिखाने कि रेस में वो ये तक भूल जातें हैं कि जनता को राजनीतिज्ञ विशेष कि जीत से कोइ मतलब नहीं है।  उसको मतलब है विकास से , जन सुविधाओं से, अवसरो से और स्वस्थ समाज से जहाँ वह अपने परिवार के साथ सम्मान से रह सके।  ये नेता स्वयं तो इस रेस मेँ जीत जातें हैँ लेकिन सकारात्मक विचार , विकास , अवसर, जन सुविधाएँ और विकास हमेशा हार जातें हैँ।  क्युकी इन सबको साथ लेकर कोइ दौड़ना नहीं चाहता। 

हमें जरूरत है एक ऐसे राजनितिक धावक कि जो सकारात्मक मुद्दों को साथ में लेकर चले और अगर कहीं पर भी वह जीतता है तो ये न समझे कि जीत उसकी हुई है वह समझे जीत सकरात्मक मुद्दो की हुई है , जीत जन कि हुई है , जीत संविधान की हुई है, जीत " हम भारत के लोग। … " की हुई है !


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