#FYUP, Few Unanswered Questions !!!
दिल्ली विश्वविद्यालय
के फ़ोर ईयर अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम (एफवाईयूपी) जो की २०१३-२०१४ के सत्र के लिए
शुरू किया गया था आज उस पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है। वैसे ४ साल का कोर्स होना
चाहिए या नहीं होना चाहिए ये एक सब्जेक्टिव विषय है। लेकिन दिल्ली विश्व
विद्यालय जो की इस देश में अपनी अहम पहचान रखता है। भारत की राजधानी में
स्थित इस विश्वविद्यालय में पूरे देश से लोग पढ़ने आतें हैं और जिस "विविधता
में एकता " की बात हम भारतवासी करतें हैं , दिल्ली विश्वविद्यालय उसका एक सफल
उदाहरण है , और आज भी यहाँ से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों को भारत के साथ -साथ
वैश्विक मंच पर देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य है की कुछ तो इस
विश्वविद्यालय में होगा ही जो की इसकी इतनी अहम पहचान सुनिश्चित करता है चाहे वो
चीज़ यहाँ की फैकल्टी हो , शिक्षा व्यवस्था हो या और कुछ।
खैर अब होगा तो वही जो यू
जी सी चाहेगा लेकिन कुछ प्रश्न हैं जिनका जनक ये मुद्दा ही है। जैसे की
अगर मैं उस समय की बात कहूँ जब ये कोर्स सुर्ख़ियों में था, उस समय मैं
दिल्ली में ही था , बात अगस्त २०१२ की है जब एक राष्ट्रीय अखबार ने इस ४ साल
कोर्स के सन्दर्भ में एक सूचना छापी थी और उसमे इस कोर्स को एक विशेष कोर्स की तरह
दिखाया गया था, और ओपन डिस्कशन में शिक्षा के क्षेत्र से कई काउंसलर आये
थे जिन्होंने बताया की इस कोर्स में ५० प्रतिशत वेटेज प्रोजेक्ट वर्क को दिया
जायेगा, मेटा कोर्स में विद्यार्थी पांच कोर्सो में स्पेशलाइजेशन कर सकता है।
और इस बात बात पर विशेष बल दिया गया कि इस कोर्स को बी टेक इन हुमेनिटी कहा
जायेगा। कुछ अभिभावकों से जब उनकी राय ली गयी तो इस कोर्स के पक्ष के साथ
-साथ विपक्ष में भी लोग थे , क्युकी जो छात्र उस समय फर्स्ट ईयर में थे अगर
कोर्स को लेना चाहते तो उन्हें अपना एक साल छोड़ना पड़ता। जो की चिंता
का विषय था। लेकिन उस समय इस मुद्दे को कहीं पर भी वाद -विवाद के लिए कोई स्थान
नहीं दिया गया। और जैसा की दिल्ली विश्वविद्यालय की ऑथोरिटी भी कह रही है कि
उस समय इस कोर्स को एकेडेमिक काउंसिल और एग्जीक्यूटिव काउंसिल की
मंजूरी भी मिल गयी थी और विज़िटर ऑफ़ दी यूनिवर्सिटी, प्रेजिडेंट को भी इस बात
से अवगत कराया गया था। एक प्रश्न ये भी उठता है कि अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद और नेशनल यूथ कांग्रेस ने भी उस समय इस मुद्दे के लिए कोई
प्रदर्शन क्यों नहीं किया?
आज वैसे कई लोगो का कहना
है कि चूकी विदेशो में आगे की पढ़ाई करने के लिए ४ साल के
अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम की जरूरत होती है इसी लिए ये कोर्स डाला जा रहा
है। कुछ लोग इसे राजनीती से ग्रसित बता रहें हैं। वैसे इसका कारण क्या
है ये कह पाना तो मुश्किल है , लेकिन यहाँ पर ये ध्यान देना भी आवश्यक है की भारत
में कई हुमैनिटी के कोर्स हैं जहाँ पर कोर्स का समय ४ साल का है उसमे से
एक IISc में ४ ईयर बैचलर ऑफ़ साइंस का कोर्स चलता है।
यहाँ पर कुछ अनुत्तरित
प्रश्न ये हैं की अब उन विद्यार्थियों का नुक्सान कौन सहेगा जिन्होंने इस ४
साल वाले कोर्स में अपना एक साल पूरा कर लिया है ?नए विद्यार्थियों का क्या होगा,
उनका कन्फयूजन कौन दूर करेगा ? क्या दिल्ली विश्वविद्यालय को अपने निर्णय
लेने की स्वायत्तता है ? विजिटर की क्या भूमिका है ? यूनिवर्सिटी
ग्रैंड कमीशन ने निर्णय लेने में एक सत्र का इतंजार क्यों किया ? क्या
हमारी राजनीती का शिक्षा व्यवस्था में अनुचित हस्तक्षेप हो रहा है ?क्या
कोठारी कमीशन (१९६४-१९६६ ) , जहाँ पर देश के लिए १० +२ +३ का प्रावधान रखा
गया था , उसपे पुनः विचार का समय है ?
किसी भी देश की साख में
वहां की शिक्षा व्यवस्था का बहुत बड़ा हाँथ होता है। भारत जैसे देश को इस समय
अपने को शिक्षा के हब की तरह वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित करना है। यहाँ पर
विदेशो से भी लोग पढ़ने आतें हैं। अतः हमे इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए
कि बाहरी आदमी को जो हम दिखाएँ उसी के अनुरूप विश्व पटल पर हमारी इमेज बनेगी।
और जहाँ तक विश्व विद्यालय की स्वायत्तता की बात है तो उसे कही से भी कोई
नुक्सान नहीं पहुँचना चाहिए। साथ ही साथ हमे कुछ ऐसे मापदण्डो को सुनिचित करना
पड़ेगा जहाँ पर भारतीय विद्यार्थी किसी भी विदेशी विद्यार्थी से योग्यता में अपने
को कम न समझे और सभी भारतीय विद्यार्थियों को भारत सहित विश्व के किसी भी देश में
अवसरों से वंचित न रहना पड़े।
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