अपने जीवन का न्यायधीश
हम मुख्य बिंदु पर आतें हैं, " हर व्यक्ति अपने जीवन का न्यायधीश " कैसे हो सकता है ? न्याय करने की क्षमता से पूर्ण व्यक्ति की सबसे प्राथमिक विशेषता उस व्यक्ति का एक अच्छा श्रोता होना अति आवश्यक है , और एक अच्छा श्रोता होने हम बचपन से सुनते आ रहें हैं, लेकिन फिर एक प्रश्न है , क्या हम सिर्फ सुनते रहें हैं या हमने कभी उसे अमल भी किया है ? ये तो सत्य है की जो जितना ज्ञानी होता है वह सागर की तरह शांत होता है , और हमें गुरुवों को सुनना चाहिए , बातों को सुन कर ही हम सही गलत का फैसला कर सकतें हैं। दूसरों को सुनना यदि थोड़ी देर के लिए मान लें की द्वितीयक हो सकता है , प्राथमिक स्तर पर तो हमें स्वयं का श्रोता होना आवश्यक है , अर्थात अपने मन की बात हम कब सुनतें हैं ?
कहने का अर्थ मात्र इतना है कि यदि हमें अपेक्षाकृत सही निर्णय लेना है तो हमें सर्व प्रथम अपने आप और फिर दूसरों को सुनना चाहिए उसके बाद ही हमें किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए , और वो निर्णय ले कर ही हम अपने न्यायधीश बन सकतें हैं।
सुनते तो बचपन से आएं हैं हमें सच बोलना चाहिए , और बोला भी सच , लेकिन कभी किसी ने ये नहीं कहा हमें सच सुनना भी चाहिए। इसीलिए लोग सच सुनते ही नाराज़ हो जातें हैं। खैर ! चलिए इस साल अपने आप को सुनतें हैं , अपने जीवन के न्यायधीश बनते हैं। .. कुछ नया करतें हैं।
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